शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

यकीन 2

मैं यकीन करती गई
तेरे हर वादे पर
और तू
हर्फ़ दर हर्फ़
छलता रहा
अब मैं बस चाहती हूँ
खून के बदले खून
आंसूंओं से भीगा चेहरा
हर ज़ुल्म का हिसाब
दर्द के बदले दर्द
चौराहे पर बेइज्जती
शर्म से झुका चेहरा
हर अपमान का बदला
जो तूने बिन मांगे
बिन अपराध
मढ़ दिया माथे पर
लेकिन
क्या करूँ?
मैं तुमसे
बेइन्तहां मुहब्बत करती हूँ
तू जानता है
और तेरे ज़ुल्म की
इन्तहां बढ़ जाती है

लेकिन
आज
तुम जानते हो?
मैं तुमसे बेइन्तहा
नफ़रत करती हूँ

२० नवम्बर २०१३
  

यकीन

मैं यकीन करती हूँ?
तुम यकीन करते हो?
कौन यकीन करता है?
इसी यकीं पर
यकीन करती हूँ

ये सिलसिला बरसों से
फिर यकीन पर शक़?
इस शक़ पर यकीं क्यूँ?
तेरे यकीं पर यकीं

२९ नवम्बर २०१३
प्रेम, यकीन